1980 के दशक में अमेरिका, जापान के उदय और “अमेरिका पर जापान के कब्जे” को लेकर काफी ज्यादा टेंशन में रहता था, क्योंकि मित्सुबिशी और सोनी जैसी जापानी कंपनियों ने अमेरिका की प्रमुख प्रॉपर्टीज पर कब्जा कर लिया था। इस चिंता ने माइकल क्रिचटन के राइजिंग सन (1992) जैसे उपन्यासों को जन्म दिया, जो लॉस एंजिल्स में एक ‘काल्पनिक युग में भ्रष्टाचार’ से भरी ‘अमेरिकी भविष्य की हत्या’ की रहस्यपूर्ण कहानी है, जब जापानी कंपनियों ने अमेरिका में पूरी तरह से अपना दबदबा बना लिया था।
जापानी कंपनियों ने उस दौरान अमेरिकी बाजारों में किसी भी प्रतिस्पर्धा को खत्म कर दिया था। विडंबना यह है कि उसी समय, जापानी बुलबुला भी फूटने लगा था और एक लंबा ठहराव आने लगा था।
पिछले तीन दशकों से अमेरिकी और पश्चिमी सिस्टम में चीनी घुसपैठ और चीनी कंपनियों की ताकत के बारे में चिंताएं तेजी से बढ़ी हैं, खासकर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की टेक्नोलॉजी चोरी सहित खुद की साजिशों के कारण। यह गाथा जारी है क्योंकि चीन ने अब बड़े पैमाने पर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर कब्जा कर चुका है और इलेक्ट्रिक वाहनों और अन्य क्षेत्रों में अमेरिका सहित पश्चिम से काफी आगे निकल गया है।
और जापान और चीन के बाद आर्थिक ताकत और भारतीय कंपनियों की भूमिका के बारे में यह चिंता भारत की तरफ तो आनी ही थी, क्योंकि भारत की जीडीपी लगातार आगे बढ़ रही है, भारत का ग्रोथ रेट दुनिया में सबसे ज्यादा है और बहुत जल्द भारत की अर्थव्यवस्था तीसरे नंबर पर आने वाली है और हर तरह के आर्थिक रिपोर्ट में बताया जा रहा है, कि भारत की अर्थव्यवस्था की रफ्तार फिलहाल थमने वाली नहीं है।
लिहाजा, अडानी मामले को समझना काफी जरूरी हो जाता है।
अडानी रिश्वतकांड में सच क्या है, झूठ क्या है, इसका फैसला करना अदालत का काम है, लेकिन इस कथित भ्रष्टाचार कांड के पीछे की जियो-पॉलिटिक्स को समझना काफी जरूरी हो जाता है।
अडानी का उदय
अहमदाबाद स्थित करीब 150 अरब डॉलर का अडानी समूह, तीन दशक पहले लगभग अज्ञात था, और फिर भी यह भारत में बंदरगाहों से लेकर रियल एस्टेट, FMCG और मीडिया पोर्टफोलियो के साथ सबसे शक्तिशाली समूहों में से एक बन गया है। यह एक तरह से बांग्लादेश में बिजली की आपूर्ति से लेकर दुनिया भर में बंदरगाहों के निर्माण और मैनेजमेंट तक, भारत के भू-राजनीतिक बुनियादी ढांचे के निर्माण में निजी योगदान की अगुआई कर रहा है।
उदय गौतम अडानी के व्यवसाय का उदय, भारतीय राजनीति में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उदय के साथ-साथ हुआ है और आज की तारीख में, अडानी समूह की लगभग हर भारतीय राज्य में दिलचस्पी है, और इस प्रकार, हर राजनीतिक दल के साथ उनके संबंध हैं।
यह उन बड़ी कंपनियों के समूह में सबसे आगे है, जिन्हें भारत की आर्थिक ताकत को घरेलू और दुनिया भर में पहुंचाने का काम सौंपा गया है, ठीक वैसे ही जैसे चैबोल्स ने कभी दक्षिण कोरिया के लिए किया था, या जैसा मित्सुबिशी, टोयोटा और सोनी जैसी कंपनियों ने 1980 के दशक में जापान के लिए किया था, या जैसा चीन की BYD आज EV बाजार में खलबली मचा रही है, उसी तरह से अडानी, भारत की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के मुख्य चेहरों में से एक बन गये हैं।
और यही वजह है, कि अमेरिकी डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस ने जब अडानी समूह और उसके प्रमोटर गौतम अडानी के खिलाफ भ्रष्टाचार (रिश्वत) के आपराधिक और दीवानी आरोपों की घोषणा की, तो इस मामले ने दुनिया भर में सुर्खियां बटोरीं। कुछ लोगों का मानना ,है कि अडानी पर हमला मोदी सरकार पर हमला है, लेकिन वास्तव में चीजें इससे काफी ज्यादा जटिल हैं।
अडानी समूह भारतीय अर्थव्यवस्था के लगभग हर क्षेत्र से बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है, जिसका मतलब है, कि यह देश के लगभग हर राजनीतिक दल के साथ काम करता है। आज इसकी राष्ट्रीय पहचान इतनी ज्यादा है, कि यह किसी एक पार्टी या यहा तक कि किसी एक राजनीतिक नेता के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।
भारत के लिए कितना जरूरी हो चुके हैं अडानी?
हकीकत तो यह हे, कि भारत को ऐसे चैंपियनों की जरूरत है, जो इसके जियो-पॉलिटिकल फायदों को आगे बढ़ा सकें और यह सुनिश्चित कर सकें, कि भारत, चीन के बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट का सामना करने की ताकत रखता है।
भारत के पास भले ही चीन जितनी आर्थिक ताकत नहीं है, लेकिन यह तेजी से विस्तार कर रहा है और कई देशों में इसकी चीन से ज्यादा साख है। अडानी समूह उन देशों में तेजी से बंदरगाह और एयरपोर्ट प्रोजेक्ट हासिल कर रहा है, जहां चीन अपना दबदबा बनाना चाहता है, और जो देश, भारत को जियो-पॉलिटिकल लाभ पहुंचाते हैं। उदाहरण के लिए श्रीलंका, जहां पोर्ट डील हासिल करने के लिए भारत और चीन एड़ी से चोटी का जोर लगा देते हैं।
और अमेरिका में जैसे ही अडानी समूह के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गये, ठीक वैसे ही केन्या के राष्ट्रपति ने 2.6 अरब डॉलर के हवाईअड्डा और ऊर्जा सौदे को रद्द कर दिया, जबकि केन्या, जियो-पॉलिटिक्स में भारत और चीन के लिए कितना महत्व रखता है, ये बताने की जरूरत नहीं है। केन्या के साथ अडानी ग्रुप का डील रद्द होना, गौतम अडानी के लिए नहीं, बल्कि भारत के लिए झटका है।
अडानी पर एक के बाद एक हमले क्यों?
अडानी ग्रुप के खिलाफ रिश्वतकांड का ये खुलासा काफी दिलचस्प है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अडानी कानूनी घोटाला तब सामने आया है, जब कुछ महीने पहले अमेरिका के एक एक्टिविस्ट शॉर्ट-सेलर ने अडानी समूह के वित्तीय लेन-देन का तथाकथित खुलासा किया था, लेकिन उन खुलासों से समूह को कोई नुकसान नहीं पहुंचा।
और रिश्वतकांड के जरिए आपराधिकर आरोप लगाकर कोशिश ये की गई है, कि इसे काफी गंभीरता से लिया जाएगा। हालांकि, अडानी ग्रुप ने तमाम आरोपों से इनकार कर दिया है।
गौतम अडानी के खिलाफ़ सुझाए गए आपराधिक मामले को शायद ज़्यादा गंभीरता से लिया जाएगा- अडानी समूह ने सभी आरोपों से इनकार किया है और एक्सपर्ट्स का कहना है, कि अदालत के अंदर ऐसे आरोपों के टिकने की संभावना नहीं है, लिहाजा ऐसे आरोपों को लगाने के पीछे का मकसद कुछ और हो सकता है।
जैसे
– अडानी ग्रुप को अमेरिकी बाजारों से फंड जुटाने से रोकना
– अडानी ग्रुप को दुनियाभर में बंदरगाहों के विस्तार करने से रोकना
– अडानी के जरिए मजबूत मोदी सरकार पर दबाव बनाना
रिश्वतकांड के खुलासे के फौरन बाद अडानी ग्रुप की एक ऊर्जा कंपनी, अडानी ग्रीन को अमेरिका में अपने 600 मिलियन डॉलर के बॉन्ड की पेशकश वापस लेनी पड़ी है। यह जो बाइडेन की डेमोक्रेटिक सरकार के अंतिम दिनों में हुआ है और यह बाइडेन नौकरशाही के कुछ हिस्सों के मोदी सरकार के साथ बढ़ते हुए तकरार का विस्तार भी हो सकता है।
रिश्वतकांड के खुलासे ने अडानी ग्रुप के मार्केट कैप में 25 अरब डॉलर की कमी कर दी है और इन आरोपों के बाद अगले कई महीनों तक इसके लिए अमेरिकी बाजार से फंड जुटाने की क्षमताओं पर गहरा असर पड़ेगा। लेकिन अमेरिका की इस हरकत से उसे खुद फायदा होने के बाद वास्तविक फायदा चीन को होगा।
जैसे, चीन का बंदरगाह प्रोजेक्ट किसी अमेरिकी कंपनी को नहीं, बल्कि चीन को मिलेगा। इसके अलावा, आने वाले वक्त में दुनियाभर में बिजली परियोजनाएं भी चीन के हिस्से में गिरने की संभावना ज्यादा बन गई है।
अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया में बंदरगाहों, सड़कों, हवाई अड्डों, बिजली आपूर्ति और अन्य महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे में भी निश्चित तौर पर चीन फायदा उठाएगा, जो घरेलू आर्थिक संकट से जूझ रहा है।
रिश्वतकांड के पीछे साजिश की बदबू क्यों है?
लिहाजा, असल सवाल ये है, कि क्या इस अदालती मामले को इसलिए तेजी से आगे बढ़ाया गया है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके, कि अडानी ग्रुप के खिलाफ एक्शन अगले साल जनवरी में डोनाल्ड ट्रंप की सरकार बनने से पहले डैमेज कर दिया जाए, खासकर तब, जब यह भारत में कथित रिश्वतखोरी से संबंधित है, न कि अमेरिका में।
अमेरिकी नियम ऐसे कानूनी हस्तक्षेप की अनुमति देते हैं जहां अमेरिका से धन जुटाया गया हो, और जहां अमेरिकी कंपनियों की भागीदारी हो, लेकिन ऐसे हस्तक्षेप नॉर्मल नहीं हैं।
लिहाजा, पूछे जाने चाहिए, क्या इस अदालती मामले की घोषणा से भारत और अमेरिका के बीच संबंधों में और ज्यादा अस्थिरता लाने की कोशिश की गई है, जो पहले से ही खालिस्तान मुद्दे और खालिस्तानी आतंकवादी, गुरपतवंत सिंह पन्नू को खत्म करने की कथित भारतीय खुफिया साजिश से जूझ रहा था? क्या ट्रंप के सत्ता में आने से पहले चीजें और भी बिगड़ सकती हैं, और क्या यह इस बात के आधार तैयार किए जा रहे हैं, कि ट्रंप के सत्ता में आने के बाद भी दोनों देशों के बीच के रिश्तों में उतार-चढ़ाव जारी रहे?