हालांकि, स्थानीय सुन्नियों ने जोर देकर कहा, कि प्रार्थना और उपवास का महीना एक दिन बाद ही खत्म होगा। और इसी बात को लेकर शुरू हुए दंगों में दो लोग मारे गए। फिर स्थानीय राजनेताओं के नेतृत्व में, जनरल मुहम्मद जिया-उल-हक की सेना की वजह से, चिलास, दारेल और तंगिर के जिहादियों ने गिलगित के आसपास के शिया गांवों को घेर लिया। कत्लेआम तीन दिनों तक जारी रहा। इसमें डेढ़ सौ लोग मारे गए।
इस सप्ताह की शुरुआत में खैबर-पख्तूनख्वा के कुर्रम में बच्चों और महिलाओं सहित 42 शिया तीर्थयात्रियों की हत्या कर दी गई, माना जा रहा है कि यह नरसंहार तहरीक-ए-तालिबान (टीटीपी) के जिहादियों ने किया है। टीटीपी जिहादियों ने हाल के दिनों में एक दर्जन से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों की भी हत्या की है, जो एक जानलेवा हमले का हिस्सा है, जिसके तहत उन्होंने खैबर पख्तूनख्वा और उत्तरी बलूचिस्तान में अपना साम्राज्य कायम कर लिया है।
पाकिस्तान में खतरनाक जातीय हिंसा
यह हत्या पाकिस्तान के एक देश के तौर पर नाकाम होना है। जातीय और भाषाई चुनौतियों के कारण अपने राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट में लड़खड़ाते हुए पाकिस्तान ने खुद को धार्मिक कट्टरता के रंग में रंग लिया है। 1970 के दशक में उभरे इस्लामिक स्टेट ने अहमदिया और शिया जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों का जीना हराम कर दिया।
जिहादी हत्याओं से भी ज्यादा खतरनाक तरीका, पाकिस्तान के धार्मिक अल्पसंख्यकों को उसकी राष्ट्रीय कल्पना से मिटा देना है। देश में अब बहुत कम लोग जानते हैं, कि इसके संस्थापक नेता मुहम्मद अली जिन्ना का जन्म इस्माइली परिवार में हुआ था और उन्होंने शिया धर्म को अपनाया था।
राजनीतिक वैज्ञानिक वली रजा नस्र ने लिखा है, कि पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को अपने पिता जुल्फिकार अली भुट्टो की तरह अपनी शिया विरासत को त्यागने के लिए मजबूर होना पड़ा था। यहां तक कि पूर्व सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल कमर जावेद बाजवा को भी अपनी पत्नी, युद्ध नायक मेजर जनरल इफ्तिखार जंजुआ की बेटी की अहमदिया जड़ों को सावधानीपूर्वक छिपाना पड़ा था।
पाकिस्तान में हिंसक घटनाएं
the print की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 19वीं सदी के अंत में लाहौर में रहते हुए, लेखक रुडयार्ड किपलिंग ने मुहर्रम के जुलूसों के दौरान होने वाली सांप्रदायिक हिंसा को देखा था। वे लिखते हैं, “पहला ताजिया, एक भव्य, दस फीट ऊंचा, कई हट्टे-कट्टे आदमियों के कंधों पर उठाकर घुड़सवारों की गली के अर्ध-अंधेरे में ले जाया गया।” फिर, “एक ईंट की पटिया उसके तालक और टिनसेल के किनारों से टकराई… ताजिया समुद्र में जहाजों की तरह हिल रहे थे, लंबी पोल-मशालें उनके चारों ओर झुकी और उठीं, और पुरुष चिल्ला रहे थे, ‘हिंदू ताजिया का अपमान कर रहे हैं! मारो! मारो! आस्था के लिए उनके मंदिरों में घुसो!'”
ये जिहादी जहर पाकिस्तान की नस नस में घुल चुका है। इस्लामिक अध्ययन के विद्वान एंड्रियास रीक लिखते हैं, कि दक्षिणपंथी मौलवी नूर-उल-हसन बुखारी के नेतृत्व में सुन्नी समूहों ने 1950 के दशक की शुरुआत से शिया धार्मिक रीति-रिवाजों के खिलाफ आंदोलन करना शुरू कर दिया। उदाहरण के लिए, सुन्नी विरोध के कारण सरगोधा में धार्मिक जुलूसों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। जब दक्षिणपंथी मजलिस-ए-अहरार के एक प्रतिनिधिमंडल से इस मुद्दे पर मध्यस्थता करने के लिए कहा गया, तो एक सदस्य ने कहा कि ‘शिया’ शब्द ही अपमानजनक है।
1955 में, पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में कम से कम 25 जगहों पर मुहर्रम के जुलूसों पर प्रतिबंध लगा दिया गया या उन पर हमला किया गया, जबकि कराची में इमामबाड़े पर हुए हमले में कई लोग घायल हो गए। रीक लिखते हैं, कि बढ़ते तनाव का सामना करते हुए, पाकिस्तान सरकार ने सभी शिया जुलूसों को सुन्नी समुदायों की सहमति पर निर्भर करने पर भी विचार किया।
पाकिस्तान में 1988 में भी शियाओं का शिकार किया गया और दर्जनों शिया मुस्लिमों की हत्या कर दी गई।
जनरल जिया के समर्थन से स्थापित शिया विरोधी सिपाह-ए-सहाबा जैसे समूह लगातार शक्तिशाली होते गए। यह संगठन जैश-ए-मुहम्मद जैसे भारत के खिलाफ काम करने वाले जिहादी समूहों के साथ मजबूत रूप से जुड़ा हुआ था।
कुर्रम में क्यों बढ़ता चला गया संघर्ष?
9/11 मुंबई हमले के बाद, पाकिस्तानी सेना के अफगान जिहादियों के साथ घनिष्ठ संबंधों के कारण कुर्रम में संघर्ष बढ़ता चला गया। the print की रिपोर्ट में विश्लेषक जेफरी ड्रेसलर ने बताया है, कि तालिबान के सबसे शक्तिशाली तत्व हक्कानी नेटवर्क को इस क्षेत्र में घुसने की अनुमति दी गई, जिससे अफगानिस्तान में पश्चिमी और भारतीय ठिकानों पर हमला करने का आसान मौका मिला।
जैश-ए-मुहम्मद ने अन्य जिहादी संगठनों के साथ मिलकर कोहाट में एक ट्रेनिंग सेंटर भी स्थापित किया। जहाब के अनुसार, अल-कायदा और टीटीपी बलों ने 2007 में इस्लामाबाद में कट्टरपंथी नियंत्रित लाल मस्जिद पर सेना द्वारा हमला किए जाने के बाद कम से कम 40 शिया गांवों को तबाह कर दिया, जिसके कारण संघर्ष हुआ और सरकार को हेलीकॉप्टर गनशिप तैनात करने के लिए मजबूर होना पड़ा। जिहादियों ने शिया सैनिकों और पुलिस कर्मियों के सिर भी काट दिए।
2009 में फिर से झड़पें शुरू हुईं जब जिहादियों ने कुर्रम के शिया इलाकों को घेर लिया और अधिकारियों और कबायली बुजुर्गों को मार डाला। माना जाता है, कि हकीमुल्लाह महसूद की कमान में काम करने वाले जिहादियों ने दो सप्ताह में डेढ़ सौ लोगों को मार डाला।
पाकिस्तानी सेना ने अपने जिहादी आतंकियों के साथ शांति स्थापित करने की कोशिश करके जवाब दिया और इस क्षेत्र को आतंक के हवाले कर दिया। प्रसिद्ध रूप से, पाकिस्तानी सैनिकों ने 2010 में तुरी क्षेत्रों को घेर लिया, इस जनजाति को जिहादियों को अपने क्षेत्रों से अफगानिस्तान में प्रवेश करने की अनुमति देने से इनकार करने के लिए दंडित किया। 2012 में, एस्टोर से सड़क पर शिया नागरिकों का नरसंहार हुआ और उन्हें गोली मारने से पहले “शिया काफिर” नारा लगाने के लिए मजबूर किया गया।
पाकिस्तान क्यों नहीं कर सकता कंट्रोल?
खैबर-पख्तूनख्वा के एक बड़े इलाके पर अब जिहादियों का कब्जा है और पाकिस्तान सरकार की, इन इलाकों में कानून का शासन स्थापित करने की कोई इच्छा नहीं है। और इसका कारण जानना भी बहुत आसान है।
देश बनने के फौरन बाद ही पाकिस्तानी राज्य, धार्मिक दक्षिणपंथ के सामने ढह गया, और राष्ट्र बनाने की इच्छा को उसने त्याग दिया। जनरल जिया ने देश को एक ऐसी स्थिति में ला दिया, जिसकी वैधता सिर्फ धर्म पर आधारित थी। और यही वजह है, कि पाकिस्तान अब एक अंतहीन युद्ध में फंस गया है और ये देश अब कभी भी स्थिर नहीं हो पाएगा। और यह एक मजबूत संदेश देता है, कि कट्टरता उन राष्ट्रों को निगल जाती है, जो इसे पोषित करते हैं। खैबर-पख्तूनख्वा में घटित त्रासदी में ऐसे सबक हैं, जिन पर भारतीयों को सावधानीपूर्वक विचार करने की जरूरत है।